Sunday, December 13, 2009

महाकवि कालिदास कृत मेघदूतम् श्लोक ४६ से ५० हिन्दी पद्यानुवाद द्वारा प्रो. सी. बी. श्रीवास्तव "विदग्ध " मो ००९४२५८०६२५२

महाकवि कालिदास कृत मेघदूतम् श्लोक ४६ से ५०
हिन्दी पद्यानुवाद द्वारा प्रो. सी. बी. श्रीवास्तव "विदग्ध " मो ००९४२५८०६२५२


तत्र स्कन्दं नियतवसतिं पुष्पमेघीकृतात्मा
पुष्पासारैः स्नपयतु भवान व्योमगङ्गाजलार्द्रैः
रक्षाहेतोर नवशशिभृता वासवीनां चमूनाम
अत्यादित्यं हुतवहमुखे संभृतं तद धि तेयः॥१.४६॥

जलासेक से तब मुदित, धरणि उच्छवास
मिश्रित पवन रम्य शीतल सुखारी
जिसे शुण्ड से पान करते द्विरद दल
सध्वनि , पालकी ले बढ़ेगा तुम्हारी
तुम्हें देवगिरि पास गमनाभिलाषी
वहन कर पवन मंद गति से चलेगा
कि पा इस तरह सुखद वातावरन को
वहां पर सपदि वन्य गूलर पकेगा

शब्दार्थ ... जलासेक = पानी की फुहार



ज्योतिर्लेखावलयि गलितं यस्य बर्हं भवानी
पुत्रप्रेम्णा कुवलयदलप्रापि कर्णे करोति
धौतापाङ्गं हरशशिरुचा पावकेस तं मयूरं
पश्चाद अद्रिग्रहणगुरुभिर गर्जितैर नर्तयेथाः॥१.४७॥
वहाँ पर स्वयं पुण्य घन व्योम गंगा
सलिल सिक्त तुम पुष्प वर्षा विमल से
नियतवास स्कन्द को देवगिरि पर
प्रथम पूजना मित्र कुछ और चल के
षडानन वही इन्द्र की सैन्य रक्षार्थ
जिनको स्वयं शम्भु ने था बनाया
रवि से प्रभापूर्ण , अति तेज वाले
जिन्होंने अनल मुख से था जन्म पाया


आराद्यैनं शरवणभवं देवम उल्लङ्घिताध्वा
सिद्धद्वन्द्वैर जलकणभयाद वीणिभिर मुक्तमार्गः
व्यालम्बेथाः सुरभितनयालम्भजां मानयिष्यन
स्रोतोमूर्त्या भुवि परिणतां रन्तिदेवस्य कीर्तिम॥१.४८॥
जिसके सुरंजित प्रभारश्मि मण्डित
स्वयं ही गिरे पंख को श्री भवानी
वात्सल्य के वश , कमल दल अलग कर
बना निज लिया धार अवतंस मानी
शिव शशि प्रभा से त्ा धौत जिसके
नयन, षडानन का शिखि वहां पाना
पर्वत गुहा ध्वनित घन गर्जना से
स्वयं की , उसे तुम वहां पर नचाना

शब्दार्थ ... अवतंस = कान का आभूषण



त्वय्य आदातुं जलम अवनते शार्ङ्गिणो वर्णचौरे
तस्याः सिन्धोः पृथुम अपि तनुं दूरभावात प्रवाहम
प्रेक्षिष्यन्ते गगनगतयो नूनम आवर्ज्य दृष्टिर
एकं भुक्तागुणम इव भुवः स्थूलमध्येन्द्रनीलम॥१.४९॥

तब "स्कंद " को अर्घ्य दे देवगिरि पार
करते समय सिध्दगण वीणधारी
वर्षा सलिल भीति से वे युगल पुंज
देंगे तुम्हें मार्ग वनपंथ चारी
सुरभि धेनु की पुत्रियो के सतत मेघ
से बन गई भूमि पर है नदी जो
रुकना उसे मान देने कि रतिदेव की
कीर्ति को .. नदी चर्मण्वती को
शब्दार्थ ... चर्मण्वती = चंबल नदी


ताम उत्तीर्य व्रज परिचितभ्रूलताविभ्रमाणां
पक्ष्मोत्क्षेपाद उपरिविलसत्कृष्णशारप्रभाणाम
कुन्दक्षेपानुगमधुकरश्रीमुषाम आत्मबिम्बं
पात्रीकुर्वन दशपुरवधूनेत्रकौतूहलानाम॥१.५०॥

नदी तीर लेने तुझे आ गये को
स्वयं श्यामघन ! विष्णु के वर्णधारी
बँधी दृष्टि से अचल अपलक नयन से
लखेंगे सभी सिद्धगण व्योमचारी
चर्मण्वती की विपुलधार जो
दूर नभ से दिखेगी सरल क्षीण धारा
उस पर पड़े तुम दिखोगे वहां
ज्यों , धरा के गले में तरल नील माला

3 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत आभार इस प्रस्तुति का.

Asha Joglekar said...

सुंदर प्रस्तुति बधाई ।

Unknown said...

Bahut he aacha payra leka ha