Monday, January 4, 2010

मेघदूतम् पद्यानुवाद पूर्वमेघ श्लोक ६१ से ६७ ...

मेघदूतम् पद्यानुवाद पूर्वमेघ श्लोक ६१ से ६७ ...
पद्यानुवादक प्रो.सी बी श्रीवास्तव विदग्ध


गत्वा चोर्ध्वं दशमुखभुजोच्च्वासितप्रस्थसंधेः
कैलासस्य त्रिदशवनितादर्पणस्यातिथिः स्याः
शृङ्गोच्च्रायैः कुमुदविशदैर यो वितत्य स्थितः खं
राशीभूतः प्रतिदिनम इव त्र्यम्बकस्यट्टहासः॥१.६१॥
हिमवान गिरि के किनारे सभी रम्य
स्थान औ" तीर्थ के पार जाते
भृगुपति सुयश मार्ग को "क्रौंचरन्धम्"
या "हंसद्वारम्" जिसे सब बताते
से कुछ झुके विष्णु के श्याम पद सम
बलि दैत्य बन्धन लिये जो बढ़ा था
होकर प्रलंबित सुशोभित वहाँ से
दिशा उत्तरा ओर हे घन चढ़ा जा

शब्दार्थ क्रौंचरन्धम् व हंसद्वारम् ... स्थानो के नाम


उत्पश्यामि त्वयि तटगते स्निग्धभिन्नाञ्जनाभे
सद्यः कृत्तद्विरददशनच्चेदगौरस्य तस्य
शोभाम अद्रेः स्तिमितनयनप्रेक्षणीयां भवित्रीम
अंसन्यस्ते सति हलभृतो मेचके वाससीव॥१.६२॥
कुछ और उठकर शिखर तक पहुँचकर
कैलाश से मित्र आतिथ्य पाना
था जिसकी शिखर संधियों को किया
ध्वस्त , दशकंध की बाहुओं का हिलाना
कैलाश जिसकी धवलता बनी
स्वर्ग की युवतियों हित अमल आरसी है
जिसके कुमुद शुभ्र आकाश चुम्बी
शिखर हैं खुले ज्योंकि शिव की हँसी है


हित्वा तस्मिन भुजगवलयं शम्भुना दत्तहस्ता
क्रीडाशैले यदि च विचरेत पादचारेण गौरी
भङ्गीभक्त्या विरचितवपुः स्तम्भितान्तर्जलौघः
सोपानत्वं कुरु मणितटारोहणायाग्रयायी॥१.६३॥

होगी वहाँ , तीर पहुंचे तुम्हारी
कज्जल सृदश श्याम स्निग्ध शोभा
ताजे तराशे द्विरददंत सम गौर
गिरि वह वहाँ और अति रम्य होगा
तो कल्पना में बँधी टक नयन से
मधुर रम्य दृष्टव्य शोभा तुम्हारी
मुझे दीखती , ज्यों गहन नील रंग की
लिये स्कंध पर शाल बलराभ भारी


तत्रावश्यं वलयकुलिशोद्धट्टनोद्गीर्णतोयं
नेष्यन्ति त्वां सुरयुवतयो यन्त्रधारागृहत्वम
ताभ्यो मोक्षस तव यदि सखे घर्मलब्धस्य न स्यात
क्रीडालोलाः श्रवणपरुषैर गर्जितैर भाययेस ताः॥१.६४॥

यदि भुजंग कंकण रहित शिव सहित
शैलपर , नृत्य मुद्रा निरत हों भवानी
तो भावमय भक्ति से धर उचित वेश ,
सोपान हो "मणि" तटारूढ़ मानी


हेमाम्भोजप्रसवि सलिलं मानसस्याददानः
कुर्वन कामं क्षणमुखपटप्रीतिम ऐरावतस्य
धुन्वन कल्पद्रुमकिसलयान यंशुकानीव वातैर
नानाचेष्टैर जलदललितैर निर्विशेस तं नगेन्द्रम॥१.६५॥

वहाँ सुर युवतियां अचश ही तुम्हें छेद
कंगन कुलश से बना नीर धारा
लेंगी सखे घेर , आनन्ददायी
धवलधारवर्षी कि जैसे फुहारा
यदि त्रस्त तब , जो न हो मुक्ति उनसे
जो क्रीड़ानिरत नारि चंचलमना हों
तो तब भीतिप्रद कर्णकटु गर्जना से
डराकर भगाना सकल अङ्गना को

तस्योत्सङ्गे प्रणयिन इव स्रस्तगङ्गादुकूलां
न त्वं दृष्ट्वा न पुनर अलकां ज्ञास्यसे कामचारिन
या वः काले वहति सलिलोद्गारम उच्चैर विमाना
मुक्ताजालग्रथितम अलकं कामिनीवाभ्रवृन्दम॥१.६६॥

जल पान कर , मान सर का जहाँ पर
कमल पुष्प वन , स्वर्ण से उगते हैं
या स्वेच्छगज इन्द्र के मुक पटल पर
छा जिस तरह झूल मुंह चूमते हैं
या झूमते कल्पद्रुम किसलयों को
कि ज्यों वस्त्र कंपित पवन मंद द्वारा
विविध भाँति क्रीड़ा निरत हो , जलद तुम
रहो प्रेम से शैल का ले सहारा


विधुन्वन्तं ललितवनिताः सेन्द्रचापं सचित्राः
संगीताय प्रहतमुरजाः स्निग्धगम्भीरघोषम
अन्तस्तोयं मणिमयभुवस तुङ्गम अभ्रंलिहाग्राः
प्रासादास त्वां तुलयितुम अलं यत्र तैस तैर विशेषैः॥१.६७॥

कैलाश के अंक में प्रियतमा सम
पड़ी स्त्रस्तगंगादुकूला वहाँ है
जिसे देखकर मित्र ! हे कामचारी
न होगा तुम्हें भ्रम कि अलका कहाँ है ?
उँचे भवन शीर्ष से शुभ्र शोभित
सजी घन जलद माल से उस समय जो
दिखेगी कि जैसे कोई कामिनी
मोतियों की लड़ी से गुंथाये अलक हो

इति मेघदूतम् पूर्वमेघः।

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