Saturday, June 23, 2012

नृत्य नाटिका मेघदूतम्

नृत्य नाटिका मेघदूतम् मूल संस्कृत काव्य ... महाकवि कालिदास हिन्दी पद्यानुवाद ..... प्रो चित्रभूषण श्रीवास्तव " विदग्ध " जबलपुर पटकथा ....... इंजीनियर विवेक रंजन श्रीवास्तव ,जबलपुर नर्तक पात्र यक्ष ....वेषभूषा ... मात्र अधोवस्त्र व यज्ञोपवीत लम्बे केश यक्षिणी ... वेषभूषा ...श्रंगार विहीन अस्तव्यस्त ,किन्तु वैवाहिक प्रतीको सिंदूर , बिंदी ,तदैव आभूषणो के साथ , अति सुंदर रमणा मेघ ... श्याम रंग के उन्मुक्त वस्त्रो में यक्षिणी की सखियां .. युवा उत्साह से लबरेज सजी धजी गीत , भाषा के भावो के अनुरूप संगीत तथा कथक नृत्य की भाव भंगिमायें आवाश्यक हैं . नेपथ्य स्वर मेघदूत का कथा सार यदि कालिदास के समय में मोबाइल होता तो संभवतः मेघदूत की रचना ही न होती , क्योकि प्रत्यक्षतः मेघदूत एक नवविवाहित प्रेमी यक्ष की अपनी प्रिया से विरह की व्याकुल मनोदशा में उससे मिलने की उत्कंठा का वर्णन है . एक वर्ष के विरह शाप के शेष चार माह वर्षा ‌ॠतु के हैं . विरही यक्ष मध्य भारत के रामगिरी पर्वत से अपनी प्रेमिका को जो उत्तर भारत में हिमालय पर स्थित अलकापुरी में है , आकाश में उमड़ आये बादलो के माध्यम से प्रेम संदेश भेजता है . अपरोक्ष रुप से रचना का भाषा सौंदर्य , मेघो को अपनी प्रेमिका का पता बताने के माध्यम से तत्कालीन भारत का भौगिलिक व राजनैतिक वर्णन , निर्जीव मेघो को सप्राण संदेश वाहक बनाने की आध्यात्मिकता , आदि विशेषताओ ने मेघदूत को अमर विश्वकाव्य बना दिया है . मेघदूत खण्ड काव्य है . २ खण्ड है . पूर्वमेघ में ६७ श्लोक हैं जिनमें कवि ने मेघ को यात्रा मार्ग बतलाकर प्रकृति का मानवीकरण करते हुये अद्भुत कल्पना शक्ति का परिचय दिया है . उत्तरमेघ में ५४ श्लोक हैं , जिनमें विरह अवस्था का भावुक चित्रण है . लौकिक दृष्टि से पति पत्नी में कुछ समय के लिये विरह बहुत सहज घटना है .. "तेरी दो टकियो की नौकरी मेरा लाखो का सावन जाये" आज भी गाया जाता है किन्तु कालिदास के समय में यह विरह अभिव्यक्ति यक्ष के माध्यम से व्यक्त की जा रही थी .. यक्षिणि शायद इतनी मुखर नही थी, वह तो अवगुंठित अल्कापुरी में अपने प्रिय के इंतजार में ही है . इसी सामान्य दाम्पत्य विरह की घटना को विशिष्ट बनाने की क्षमता मेघदूत की विशिष्टता है . आइये "मनीषा" के कलाकारो के माध्यम से चलते हैं उस युग में जब संचार का सर्व श्रेष्ठ साधन हो सकते थे ... प्रतिवर्ष दक्षिण से उत्तर दिशा की ओर बढ़ते हुये मानसून के लरजते , बरसते हुये बादल ..... पर्दा खुलता है ... तड़ित की आवाज की गर्जना और तद्नुसार चमकता प्रकाश .... यक्ष " वेषभूषा ... मात्र अधोवस्त्र व यज्ञोपवीत " .. दर्शको की ओर पीठ किये हुये उदास अवस्था में बैठा हुआ है .... नृत्य ... नेपथ्य गायन अवसादमय संगीत के साथ मैं दुर्भाग्यवश दूर प्रिय से पड़ा हूं हो तुम श्रेष्ठ इससे है विनती हमारी संतप्त जन के हे आश्रय प्रदाता जलद ! मम प्रिया को संदेशा पठाना मैं , धनपति के श्राप से दूर प्रिय से है अलकावती नाम नगरी हमारी यक्षेश्वरों की, विशद चंद्रिका धौत प्रासाद , है बन्धु गम्या तुम्हारी गगन पंथ चारी , तुम्हें देख वनिता स्वपति आगमन की लिये आश मन में निहारेंगी फिर फिर ले विश्वास की सांस अपने वदन से उठा रूक्ष अलकें तड़ित की आवाज की गर्जना और तद्नुसार चमकता प्रकाश .... सुन कर्ण प्रिय घोष यह प्रिय तुम्हारा जो करता धरा को हरा , पुष्पशाली कैलाश तक साथ देते उड़ेंगे कमल नाल ले हंस मानस प्रवासी यथा कृष्ण का श्याम वपु गोपवेशी सुहाता मुकुट मोरपंखी प्रभा से तथा रत्नछबि सम सतत शोभिनी कान्ति पाओगे तुम इन्द्र धनु की विभा से दृश्य परिवर्तन .... नेपथ्य स्वर ... आइये पहुँचते हैं हिमालय के कैलाश पर्वत में स्थित अलकापुरी में ..... अलकापुरी ... यक्षिणी व सखियो का संयुक्त नृत्य नेपथ्य गायन ... उल्लास मय संगीत के साथ जहाँ सुन्दरी नारियाँ दामिनी सी जहाँ के विविध चित्र ही इन्द्र धनु हैं संगीत के हित मुरजताल जिनकी कि गंभीर गर्जन तथा रव गहन हैं उत्तुंग मणि रत्नमय भूमिवाले जहाँ हैं भवन भव्य आमोदकारी इन सम गुणों से सरल , हे जलद ! वे हैं सब भांति तव पूर्ण तुलनाधिकारी लिये हाथ लीला कमल औ" अलक में सजे कुन्द के पुष्प की कान्त माला जहाँ लोध्र के पुष्प की रज लगाकर स्वमुख श्री प्रवर्धन निरत नित्य बाला कुरबक कुसुम से जहाँ वेणि कवरी तथा कर्ण सजती सिरस के सुमन से सीमान्त शोभित कदम पुष्प से जो प्रफुल्लित सखे ! आगमन से तुम्हारे दृश्य परिवर्तन नेपथ्य गायन ... विरह संगीत के साथ यक्ष पत्नी की दशा .. श्रंगार विहीन अस्तव्यस्त ,किन्तु वैवाहिक प्रतीको सिंदूर , बिंदी ,तदैव आभूषणो के साथ , अति सुंदर रमणा .. स्टेज पर .. व्यथा से कृषांगी , विरह के शयन में पड़ी एक करवट दिखेगी मलीना क्षितिज पूर्व के अंक में हो पड़ी ज्यों अमावस रजनि चंद्र की कोर क्षीणा वही रात जो साथ मेरे यथेच्छा प्रणय केलि में एक क्षण सम बिताती होगी विरह में महारात्री के सम बिताती उसे उष्ण आंसू बहाती मेघ का नृत्य ... सुभगे ! सखा स्वामि का मैं तुम्हारा गया सुखद संदेश लेकर पठाया संजोये सखा की सभी भावनायें सुनाने यहाँ तुम्हारे पास आया श्यामालता में सुमुखि ! अंग की कांति हरिणि नयन में , नयन खोजता हूं मुख चंद्र में , बर्हि में केश का रूप जल उर्मि में बंक भ्रू सोचता हूं पर खेद है किसी एक में भी तुम्हारी सरसता नहीं पा सका हूं तरसता रहा हूं , सदा प्रिय परस को तुम्हारे दरस भी नहीं पा सका हूं . किसको मिला सुख सदा या भला दुख दिवस रात इनके चरण चूमते हैं सदा चक्र की परिधि की भांति क्रमसः जगत में ये दोनो सदा घूमते हैं मेरी शाप की अवधि का अंत होगा भुजग शयन से जब उठेंगे मुरारी अतः इस विरह के शेष चार महीने नयन मूंदकर लो बिता शीघ्र प्यारी फिर विरह दिन की बड़ी लालसायें सभी पूर्ण होंगी हमारे भवन में सुख भोग होंगे कि जब हम मिलेंगे शरद चंद्रिकामय सुहानी रजनि में . यक्ष नृत्य द्वारा मेघ को आशीष देता है ....कि उसकी पत्नी दामिनी से उसका विरह कभी भी न हो प्रिय कार्य को पूर्ण करके जलद तुम करो स्वैर संचार इच्छा जहां हो वर्षा विवर्धित लखो देश संपूर्ण तुम दामिनी से कभी ना जुदा हो . नेपथ्य स्वर .... भारतीय संस्कृति में आत्म प्रशंसा को शालीनता के विपरीत आचरण माना गया है , यही कारण है कि जहाँ विदेशी लेखकों के आत्म परिचय सहज सुलभ हैं ,वहीं कवि कुल शिरोमणी महाकवि कालिदास जैसे भारतीय मनीषीयों के ग्रँथ तो सुलभ हैं किन्तु इनकी जीवनी दुर्लभ हैं ! आत्म प्रवंचना से दूर कालिदास अपने विश्वस्तरीय ग्रंथो मेघदूतम् , रघुवंशम् , कुमारसंभवम् , अभिग्यानशाकुन्तलम् आदि के माध्यम से अमर हैं . ये सभी ग्रंथ मूलतः संस्कृत भाषा में लिखे गये हैं . संस्कृत न जानने वाले हिन्दी पाठको के लिये जबलपुर के साहित्य मनीषी, संस्कृत मर्मज्ञ प्रो सी बी श्रीवास्तव विदग्ध ने मेघदूतम व रघुवंशम सहित श्रीमद्भगवत गीता का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद किया है . इति

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