Wednesday, January 21, 2009

रघुवंशम् ।मूल श्लोक ११ से २० तक पद्यानुवाद सहित

वैवस्वतो मनुर्नाम माननीयो मनीषिणाम् ।
आसीन्महीक्षितामाद्य: प्रणवश्छन्दसामिव ।।

वैवस्वत मनु नाम के ख्यात विशेष मनीष
वेदों में ओंकार सम प्रथम प्रबुद्ध महीष ।। 11।।

तदन्वये ‘शुद्धिमति प्रसूत: ‘शुद्धिमत्तर: ।
दिलीप इति राजेन्दुरिन्दु: क्षीरनिधाविव ।।

उनके पावन वंश में प्रबुध दिलीप नरेश
हुये, कि जैसे क्षीरनिधि से उपजे राकेश ।। 12।।





व्यूढोरस्को वृषस्कन्ध: शालप्रांशुर्महाभुज: ।
आत्मकर्मक्षमं देहं क्षात्रो धर्म इवाश्रित: ।।

उर विशाल , वृषकन्ध औं दीघZ सुवाहु सुरूप
सकल कर्म हित सबल तनु , छात्रधर्म धृतरूप ।। 13।।

सर्वातिरिक्तसारेण सर्वतेजोभिभाविना ।
स्थित: सर्वोन्नतेनोवाीZ क्रान्त्वा मेरुरिवात्मना ।।

शक्ति युक्त अति तेजमय , कान्तिवान , बलवान
पृथ्वी पर विख्यात बुध , पर्वत मेरूं समान ।। 14।।

आकारसट्टशप्रज्ञ: प्रज्ञया सट्टशागम: ।
आगमै: सट्टशारम्भ आरम्भसट्टशोदय: ।।

रूप सदृश प्रज्ञा लिये , प्रज्ञा सम रूप साथ
शास्त्रविहित शुभकर्म सं , कर्मसदृश फल हाथ ।। 15।।

भीमकान्तैनृेपगुण्ौ: स वभूवोपजीविनाम् ।
अधृष्यÜचाभिगम्यÜच यादोरत्नैनिवार्णव: ।।

योग्य नृपति के गुणों से आश्रित जनहित प्रेय
हुआ कि जलचर , रत्नहित ज्यों सागर है ध्येय ।। 16।।

रेखामात्रमपि क्षुण्णादा मनोर्वत्र्मन: परम् ।
न व्यतीयृ: प्रजास्तस्य नियन्तुनेZमिवृत्तय: ।।

पूर्व प्रतििष्ठत पंथ की प्रजा रही अनुयायि
कुशल सारथी का सुरथ ज्यों न लीक तज जाए ।। 17।।

प्रजानामेव भूत्यथंZ स ताभ्यो बलिमग्रहीत् ।
सहस्त्रगुणमुत्स्रष्ड्डमादत्ते हि रसं रवि: ।।

रवि किरणों से जिस तरह करता रस स्वीकार
विविध दान हित , प्रजाहित या उसका धर भार।।18।।





सेना परिच्छदस्तस्य द्वयमेवार्थसाधनम् ।
शास्त्रेष्वकृिण्ठता बुद्धिमौंर्वी धनुषि चातता ।।

उसकी सेना के रहे दो बल श्रेष्ठप्रधान
नीति युक्त शुभ बुद्धि और धनुष रज्जु की तान ।। 19।।

तस्य संवृतमन्त्रस्य गूढाकारेिग्³तस्य च ।
फलानुमेया: प्रारम्भा: संस्कारा : प्राक्तना इव ।।

उसके मन के भाव हों या हों गूढ़ विचार
पूर्व कर्म संस्कार युत थे , फल के अनुसार ।। 20।।

हिन्दी पद्यानुवादक
प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव `विदग्ध´
सी ६ , विद्युत मंडल कालोनी , रामपुर , जबलपुर म.प्र.
भारत

No comments: