Thursday, January 22, 2009

रघुवंशम् ।श्लोक २१ से ३०

जुगोपात्मानमत्रस्तो भेजे धर्ममनातुर : ।
अगृध्रुराददे सो•र्थमसक्त: सुखमन्वभूत् ।।
सकल धर्म साधन सुलभ, स्वस्थ ‘शरीर प्रमाण
सुख - वैभव उपभेग भी किये क्षणिक सब मान ।। 21।।

ज्ञाने मौनं क्षमा ‘शक्तौ त्यागे Üळाघाविपर्यय: ।
गुणा गुणानुबन्धित्वात्तस्य सप्रसवा इव ।।
ज्ञान शक्ति औं त्याग के अनुवर्ती गुण आप्त
मौन क्षमा श्लाद्या विरति जन्मजात थे प्राप्त ।। 22।।

अनाकृष्टस्य विषयैर्विद्यानां पराट्टÜवन: ।
तस्य धर्मरमेरासीद्धृद्धत्वं जरसा बिना ।।
परांगत विद्यायों में , विषयों में रूचिहीन
वृद्धावस्था पूर्व ही धर्मकर्म में लीन ।। 23।।

प्रजानां विनयाधानाद्रक्षणाभ्दरणादपि ।
स पिता पितरस्तासां केवलं जन्महेतव: ।।
शिक्षा पोषण भरण कर , प्रजा पुत्रवत पाल
पिता जन्म हि पिता थे , पालक थे भूपाल ।। 24।।





स्थित्यै दण्डयतो दण्डयान्परिणेतु: प्रसूतये ।
अप्यर्थकामौ तस्यास्तां धर्म एव मनीषिण: ।।
अपराधी हित दण्ड था , पुत्र प्राप्ति हित ब्याह
अर्थ - काम का भी किया , धर्म सदृश निर्वाह ।। 25।।

दुदोह गां स यज्ञाय सस्याय मघवा दिवम् ।
संपद्धिनिमयेनोभौ दधतुभुZवनद्धयम् ।।
यज्ञ हेतु भूलोक का , अन्न हेतु दिवलोग
दोहन राजा ने किया ले समुचित सहयोग ।। 26।।

न किलानुययुस्तस्य राजानो रक्षितुर्यश: ।
व्यावृता यत्परस्वेभ्य: श्रुतौ तस्करता स्थिता ।।
अन्य कोई नृप कर सका नहीं कीर्ति में मात
तस्करता केवल हुई सुनने भर की की बात ।। 27।।

द्वेष्यो•पि संमत: शिष्टस्तस्यार्तस्य यथौषधम् ।
त्याज्यो दुष्ट: प्रियो•प्यासीदगुंलीवोरगक्षता ।।
रोगी को ओषधि सदृश , शिष्ट शत्रु आराध्य
तथा सर्प विष सदृश थे , दुष्ट स्वजन भी त्याज्य ।।28।।

तं वेधा विदधे नूनं महाभूतसमाधिना ।
तथाहि सर्वे तस्यासन्पराथैZकफला गुणा : ।।
ब्रह्रा ने सिरजा उसे थ यों तत्व सहेज
गुण था परहित काज ही मानो एक विशेष ।। 29।।

स वेलावप्रवलयां परिखीकृतसागराम् ।
अनन्यशासनामुर्वी ‘शशासैकपूरीमिव ।।
सागर वेषिृत भूमि जहं शेष न था कोई भूप
एक नगर की भॉंति वहंं शासन किया अनूप ।। 30।।

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