Saturday, January 24, 2009

रघुवंश प्रथम सर्ग श्लोक ३१ से ४० .. pdyanuvadk प्रो सी बी श्रीवास्तव

तस्य दाक्षिण्यरूढेन नाम्ना मगधवंषजा ।
पत्नी सुदक्षिणेत्यासीदध्वरस्येव दक्षिणा ।।
उसकी पत्नी थी सरल , मगधवंष में जात
यथा यज्ञ की दक्षिणा , सुदक्षिणा विख्यात ।। 31।।

कलत्रवन्तमात्मानमवरोधे महत्यपि ।
तया मेने मनस्विन्या लक्ष्म्या च वसुधाधिपः ।।
अन्तःपुर का थ उसे पाकर के अभिमान
वसुधाधिप के हृदय में भी था अति सम्मान ।। 32।।

तस्यामात्मानुरूपायामात्जन्मसमुत्सुकः ।
विलम्बितफलै: कालं स निनाय मनोरथै: ।।
उससे आत्मज जन्म की मधुर कल्पना पाल
दीर्घ काल से साधरत रहते थे भूपाल ।। 33।।

संतानार्थाय विधये स्वभुजादवतारिता ।
तेन धूर्जगतो गुर्वी सचिवेषु निचिक्षिपे ।।
दे सचिवों को राज्य के संचालन का भार
पुत्र प्राप्ति की कामना से गुरूभार उतार ।। 34।।

अथाभ्यच्र्य विधातारं प्रयतौ पुत्रकाम्यया ।
तौ दंपती वसिष्ठस्य गुरोर्जग्मतुराश्रमम् ।।
ब्रह्म की कर अर्चना , रख मन में विष्वास
दोनो पति पत्नी गये गुरू वषिष्ठ के पास ।। 35।।

स्निगधगम्भीरनिर्घोषमेकं स्यन्दनर्मािस्थतौ ।
प्रावृषेण्यं पयोवाहं विद्युदैरावताविव ।।
विद्युत - ऐरावत यथा वर्षाधन आसीन
रथ में बैठे दम्पती तथा भाव तल्लीन ।। 36।।





मा भूदाश्रमपीडेति परिमेयपुरः सरौ ।
अनुभावविषेषातु सेनापरिवृताविव ।।
आश्रमपद की षांति का धरधर मन में ध्यान
सीमित परिजन और गुण थे जिनकी पहचान ।। 37।।


सेव्यमानौ सुखस्पषर् षालनिर्यासगनिधभिः ।
पुष्परेणूत्किरैर्वातैराधूतवनराजिभिः ।।
सालगंध युत वायु का पा कोमल संस्पर्ष
ले पराग जो बह रही वन श्री को दे हर्ष ।। 38।।

मनोभिरामाः ष्षृण्वन्तौ रथनेमिस्वनोन्मुखै: ।
षड्जसंवादिनीः केका द्विधा भिन्नाः षिखण्डिभि: ।।
रथ ध्वनि उत्सुक मोर की कूक - छलित आवाज
मन को आकर्षक लगी , लगें षडज् ज्यों साज ।। 39।।

परस्पराक्षिसाट्टष्यमदूरोज्झितवत्र्मसु ।
मृगद्वन्द्धेषु पष्यन्तौ स्पन्दनाबद्धट्टष्टिषु ।।
रथ समीप लग मार्ग तज रथ जो रहें निहार
मृग युग्मों के नयन सम , नयनों में भर प्यार ।। 40।।

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